ज्योतिषाचार्य डॉ उमाशंकर मिश्रा
लखनऊ: प्रत्येक मनुष्य अपने जीवन में पुत्र की कामना करता है क्योंकि हमारे धर्म शास्त्रों के लिखा है :अपुत्रस्तो गतिर्नास्ति अर्थात्:- बिना पुत्र के सद्गति नहीं प्राप्त हो सकती !
पुत्र का क्या कार्य है ? यह बताते हुए हमारे शास्त्र कहते हैं
“पुन्नामनरकात् त्रायते इति पुत्र:’ अर्थात:- नर्क से जो रक्षाकरता है वही पुत्र है ! सामान्यत: जीव से इस जीवन में पाप और पुण्य दोनों होते रहते हैं ! पुण्य का फल है स्वर्ग और पाप का फल है नर्क, नर्क में पापी को घोर यातना भोगनी पड़ती है। स्वर्ग – नरक भोगने के बाद जीव पुनः अपने कर्मों के अनुसार चौरासी लाख योनियों में भटकने लगता है। पुण्यात्मा मनुष्य योनि अथवा देवयोनि को प्राप्त करते हैं और पापात्मा पशु-पक्षी, कीट – पतंगा आदि तिर्यक योनि को प्राप्त करते हैं। अतः अपने शास्त्रों के अनुसार पुत्र – पौत्रादिकों का यह कर्तव्य होता है कि वे अपने माता-पिता तथा पूर्वजों के निमित्त “श्रद्धा पूर्वक” कुछ ऐसे शास्त्रोक्त कर्म करें जिससे उन मृत प्राणियों को परलोक में अथवा अन्य योनियों में भी सुख की प्राप्ति हो सके। इसीलिए भारतीय संस्कृति तथा सनातन धर्म में पितृ ऋण से मुक्त होने के लिए अपने माता-पिता तथा परिवार के मृतक प्राणियों के निमित्त श्राद्ध करने की अनिवार्य आवश्यकता बताई गई है।
श्राद्ध कर्म को पितृकर्म भी कहते हैं। पितृकर्म का तात्पर्य है पितृ पूजा से। एक बात विशेष ध्यान रखना चाहिए पितृकार्य में या श्राद्ध करते समय वाक्य की शुद्धता तथा क्रिया की शुद्धता मुख्य रूप से आवश्यक है क्योंकि।
पितरो वाक्य मिच्छन्तिभावमिच्छन्ति देवता”अर्थात:– पितृ वाक्य और क्रिया शुद्ध होने पर ही पूजा स्वीकार करते हैं जबकि देवता भावना शुद्ध होने पर क्रिया तथा वाक्य में कोई त्रुटि हो जाए तो भी वह प्रसन्न हो जाते हैं और अपने भक्तों की पूजा स्वीकार कर लेते हैं। अत: *पितृकार्य* में देव कार्य की अपेक्षा अधिक सावधानी की आवश्यकता है। तभी श्राद्ध करना सफल हो सकता है।
कुछ अनभिज्ञ यह भी पूछते रहते हैं कि श्राद्ध क्या है ?
श्रद्धया पितृन् उद्दिश्यविधिना क्रियते यत्कर्म तत् श्राद्धम्”
अर्थात:- पितरों के उद्देश्य से विधिपूर्वक जो कर्म किये जाते हैं उसे ही श्राद्ध कहा जाता है ! श्रद्धा शब्द से ही श्राद्ध की निष्पत्ति होती है !
यथा: श्रद्धार्थमिदं श्राद्धम् श्रद्धया कृतंसम्पादितमिदम्श्रद्धया दीयते यस्मात् तच्छ्राद्धम्एवंश्रद्धया इदं श्राद्धम्अर्थात्:-
अपने मृत पितृगण के उद्देश्य से श्रद्धा पूर्वक किए जाने वाले कर्मविशेष को श्राद्ध शब्द के नाम से जाना जाता है। इसे ही पितृयज्ञ भी कहते हैं जिसका वर्णन मनुस्मृति आदि धर्मशास्त्रों पुराणों में मिलता है !
देशे काले च पात्रे च विधिना हविषा च यत् ! तिलैर्दर्भैश्च मन्त्रैश्च श्राद्धंस्याच्छ्राद्धया युतम् !! (कूर्मपुराण)अर्थात्:-
देश, काल, तथा पात्र में हविष्यादि विधि द्वारा जो कर्म तिल (यव) और दर्भ (कुश) तथा मन्त्रों से युक्त होकर श्रद्धापूर्वक किया जाता है ! वही श्राद्ध है।
संस्कृतं व्यञ्जनाद्यं चपयोमधुघृतान्वितम् !श्रद्धया दीयते यल्माच्छ्राद्धं तेन निगद्यते !!(कूर्मपुराण)अर्थात्:-
जिस कर्म विशेष में दुग्ध, घृत, मधु से युक्त सुसंस्कृत (अच्छी प्रकार से पकाये हुए) उत्तम व्यंजन को श्रद्धापूर्वक पितृगण के उद्देश्य से ब्राह्मणादि को प्रदान किया जाय ! उसे श्राद्ध कहते है !
देशे काले च पात्रे श्रद्धया विधिना च यत् !पितृनुद्दिश्य विप्रेभ्यो दत्तं श्राद्धमुदाहृतम् !!(ब्रह्मपुराण)अर्थात्:-
देश , काल और पात्र में विधिपूर्वक श्रद्धा से पितरों के उद्देश्य से जो ब्राह्मण को दिया जाय उसे श्राद्ध कहते हैं।