भीम एकादशी से मिलेगा सभी एकादशियों का पूर्ण फल
डॉ उमाशंकर मिश्रा,लखनऊ : आज दिनांक 06 जून 2025, शुक्रवार को संपूर्ण दिन एवं रात्रि तक निर्जला एकादशी है। तिथि का पारण 07 जून, शनिवार को प्रातः 9:00 बजे से पूर्व किया जाना अनिवार्य है। निर्जला एकादशी को ‘भीम एकादशी’ भी कहा जाता है। यह एकादशी समस्त एकादशियों में श्रेष्ठ मानी जाती है। इस दिन व्रत रखने से वर्ष भर की सभी एकादशियों का फल प्राप्त होता है।
निर्जला एकादशी व्रत कथा
युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण से ज्येष्ठ शुक्ल एकादशी का महत्व जानने की प्रार्थना की। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा कि इसका वर्णन व्यासजी करेंगे, जो समस्त शास्त्रों और वेदों के ज्ञाता हैं। वेदव्यासजी ने कहा कि दोनों पक्षों की एकादशी को भोजन नहीं करना चाहिए। द्वादशी को पवित्र होकर, पूजा के पश्चात ब्राह्मणों को भोजन कराकर अंत में स्वयं भोजन करना चाहिए। उन्होंने बताया कि एकादशी के दिन, चाहे मरणाशौच या जननाशौच हो, भोजन नहीं करना चाहिए।
भीमसेन ने कहा कि वह भोजन के बिना नहीं रह सकते। उन्होंने स्वीकार किया कि वर्ष में केवल एक बार ही उपवास कर सकते हैं। तब व्यासजी ने उन्हें निर्जला एकादशी का व्रत करने का निर्देश दिया, जो ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष में आती है। इस दिन सूर्योदय से अगले दिन सूर्योदय तक बिना जल ग्रहण किए व्रत करना होता है। केवल आचमन की अनुमति होती है। व्यासजी ने कहा कि द्वादशी के दिन स्नान करके ब्राह्मणों को जल, सुवर्ण और अन्नादि दान करें। इस व्रत से समस्त पापों का नाश होता है और स्वर्ग की प्राप्ति होती है। श्रीहरि स्वयं कहते हैं कि जो व्यक्ति एकादशी को व्रत करता है, वह उनके धाम में स्थान पाता है। यमदूत उसकी ओर दृष्टि तक नहीं करते; विष्णुदूत उसे लेकर भगवान के धाम पहुँचाते हैं।
जो व्यक्ति मेरु पर्वत जितने पापों से भी घिरा हो, वह इस व्रत से मुक्त हो सकता है। इस दिन दान, स्नान, जप, होम आदि सभी कर्म अक्षय फल देने वाले होते हैं। निर्जला एकादशी पर जलमयी धेनु, घृतमयी धेनु, शक्कर मिश्रित जल का घड़ा, अन्न, वस्त्र, गौ, शैय्या, कमण्डलु, छाता, जूता आदि का दान विशेष पुण्यकारी माना गया है।
पूजन मंत्र:
“देवदेव हृषीकेश संसारार्णवतारक।
उदकुम्भप्रदानेन नय मां परमां गतिम्॥”
व्रत का संकल्प:
“भगवान श्री केशव की प्रसन्नता के लिए एकादशी को निराहार रहकर आचमन के अतिरिक्त जल का त्याग करूंगा।” भीमसेन ने इस व्रत को विधिपूर्वक आरंभ किया, और तभी से इसे “पाण्डव एकादशी” या “भीम एकादशी” कहा जाने लगा।