बुवाई के बाद की राहें हो रहीं संकरी
(अनूप सिंह ) फतेहपुर (बाराबंकी),संवाददाता : अन्नदाता इन दिनों खेत में नहीं, कतारों में हल चला रहे हैं। धूप हो या उमस, किसान यूरिया की आस में सरकारी केंद्रों के बाहर उम्मीद की खेती कर रहे हैं। बुवाई के बाद अब पोषण की बारी है, लेकिन खेत की बजाय धैर्य को सींचना पड़ रहा है। बी-पैक्स केंद्रों और उर्वरक विक्रेताओं के बाहर नमी नहीं, भीड़ उमड़ रही है।
कतारें बढ़ीं, सब्र टूटा
ग्राम बसारा के कृषक असलम, रामतेज, हाशिम और शकील सुबह चार बजे घर से निकलते हैं, लेकिन लौटते हैं खाली झोले और भारी मन लिए। किसानों का कहना है कि यहां “पहचान” और “पहले से तय नाम” वाले ही पात्र हैं, बाकियों के लिए दरवाजे बंद हैं। लाइन में लगे एक बुजुर्ग किसान ने हँसी में कहा, अब खाद लेने के लिए खेती से ज़्यादा जुगाड़ चाहिए।
बोर्ड बोले— स्टॉक शून्य
निजी दुकानों की बात करें तो स्थिति और भी रोचक है। “यूरिया समाप्त” के बोर्ड अब दुकानों की दीवारों का स्थायी हिस्सा बन चुके हैं। किसान आरोप लगाते हैं कि कहीं न कहीं यह ‘अदृश्य भंडारण’ का खेल है, जो बाद में ‘अघोषित बाज़ार’ में बदल जाता है।
प्रशासन की नींद और किसान की नींव
यह स्थिति अब सिर्फ खाद की नहीं, विश्वास की भी है। किसान व्यवस्था से पूछ रहे हैं—”क्या हमारी मेहनत अब सिर्फ किस्मत के भरोसे रह गई है?” वहीं, जिम्मेदार अधिकारी आश्वासन की खुराक दे रहे हैं—”जल्द व्यवस्था सुधारी जाएगी।”
समस्या के भीतर समाधान की गुंजाइश
व्यवस्था की उलझन में भी उम्मीद की गांठें बाकी हैं। यदि वितरण पारदर्शी हो और भंडारण की निगरानी बढ़े तो हालात सुधर सकते हैं। किसान व्यवस्था से नहीं, उपेक्षा से थके हैं। जरूरत इस बात की है कि धरती के पुत्रों की मेहनत को खाद मिले—भले देर हो, पर अंधेर न हो।