गठबंधनों के शोर में शिक्षा, स्वास्थ्य, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी और पलायन जैसे असल मुद्दे पीछे छूट गए हैं
पटना,संवाददाता : बिहार की सियासत एक बार फिर जनता की कसौटी पर खड़ी है। यह वही धरती है जिसने लोकतंत्र की नींव रखी—जहां वैशाली ने जनाधिकारों की आवाज़ उठाई, बुद्ध ने करुणा सिखाई, चाणक्य ने राजनीति का सूत्र दिया और जयप्रकाश नारायण ने जनक्रांति की मशाल जलाई। लेकिन आज वही बिहार फिर चुनावी रणभूमि में है, जहां मतदाता मुद्दों और दृष्टि की तलाश में है, जबकि राजनीतिक दल जातीय गणित और सत्ता-संतुलन की बाज़ी में उलझे हैं।
बदलते समीकरण, बढ़ता भ्रम
बिहार की राजनीति में जातीय समीकरण हमेशा निर्णायक रहे हैं, लेकिन इस बार तस्वीर और पेचीदा दिख रही है। पटना की गलियों में नारे कम और सवाल ज़्यादा हैं—“कौन किसके साथ जाएगा?” कभी ‘सुशासन बाबू’ कहे जाने वाले नीतीश कुमार अब ‘यू-टर्न’ राजनीति के प्रतीक बन चुके हैं। महागठबंधन और एनडीए के बीच लगातार बदलते रिश्तों ने जनता को उलझा दिया है। छठ के माहौल में लोगों का कहना है कि गठबंधनों के शोर में शिक्षा, स्वास्थ्य, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी और पलायन जैसे असल मुद्दे पीछे छूट गए हैं। वहीं प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी और असदुद्दीन ओवैसी की एआईएमआईएम किसी भी बड़े गठबंधन के लिए चुनौती बन सकती हैं।
चेहरों की भरमार, ‘भरोसे’ की तलाश
इस बार का चुनाव मुद्दों से ज़्यादा चेहरों की लड़ाई बन गया है। एनडीए की ओर से नीतीश कुमार, सम्राट चौधरी, चिराग पासवान और जीतन राम मांझी जैसे नेता मैदान में हैं, जबकि महागठबंधन ने तेजस्वी यादव, अखिलेश प्रसाद सिंह, कन्हैया कुमार, शकील अहमद और मुकेश सहनी पर भरोसा जताया है। जनता के लिए अब सवाल है — चेहरा कौन नहीं, भरोसेमंद कौन?
महिलाओं और युवाओं पर फोकस
पिछले चुनावों की तरह इस बार भी महिलाएं और युवा वोटर निर्णायक भूमिका में हैं। हर पार्टी इस वर्ग को साधने की कोशिश में है। राजद से लेकर भाजपा तक—हर कोई ‘महिला सशक्तिकरण’ और ‘रोजगार’ को केंद्र में रखकर रणनीति बना रहा है।
“मसाला कभी खत्म नहीं होता…”
पटना के डाकबंगला चौक की चाय दुकान पर बैठे डॉ. रामकुमार सिंह कहते हैं — यह वही बिहार है जिसने दुनिया को लोकतंत्र दिया। यहां जनता नेता को ऊपर भी उठाती है और नीचे भी गिरा देती है। यह धरती याद दिलाती है कि लोकतंत्र में बदलाव का स्वाद लिट्टी-चोखे जितना देसी और चाइनीज नूडल्स जितना तात्कालिक दोनों हो सकता है। फर्क बस इतना है कि बिहार की राजनीति में मसाला कभी खत्म नहीं होता।
पटना यूनिवर्सिटी के छात्र अमन राज कहते हैं, “हर चुनाव में कोई न कोई पार्टी बदल देता है। नौकरी, पढ़ाई और पलायन जैसे मुद्दे हर बार पीछे छूट जाते हैं।”
वहीं दरियापुर के दुकानदार रामसेवक पासवान कहते हैं, “पहले लोग जात देखकर वोट देते थे, अब काम भी देख रहे हैं, लेकिन नेता काम कम, गठबंधन ज़्यादा बदलते हैं।”
किस पार्टी का किन मुद्दों पर फोकस
NDA
- भाजपा: ऑपरेशन सिंदूर, घुसपैठ, मुस्लिम डिप्टी सीएम, पाकिस्तान, और राजद के ‘जंगलराज’ की याद।
- जेडीयू: 20 साल का विकास, अपराध नियंत्रण, महिलाओं का उत्थान, परिवारवाद से दूरी।
- एलजेपी (रामविलास): पलायन रोकना, राजद के कथित गुंडाराज पर प्रहार।
महागठबंधन
- राजद: नीतीश सरकार के घोटाले, पेपर लीक, हर परिवार को एक नौकरी, वक्फ कानून पर पुनर्विचार।
- कांग्रेस: वोट चोरी का आरोप, 25 लाख का हेल्थ बीमा, 200 यूनिट मुफ्त बिजली, महिलाओं को ₹2500 प्रतिमाह भत्ता।
देश की दिशा तय करेगा बिहार
बिहार के नतीजे केवल राज्य की सत्ता नहीं, बल्कि 2029 लोकसभा चुनाव की रणनीति की भी दिशा तय करेंगे। यदि एनडीए सत्ता बरकरार रखता है तो केंद्र की स्थिति और मजबूत होगी, वहीं महागठबंधन की जीत इंडिया ब्लॉक को नई ऊर्जा दे सकती है।























