आल्हा और कजरी जैसे लोकगीत, जो कभी समाज की एकता और जीवंतता के प्रतीक थे

लखनऊ,संवाददाता : एक समय था जब सावन का महीना आते ही गांव की गलियाँ झूलों की रुनझुन और कजरी की मधुर तानों से गूंज उठती थीं। आम के पेड़ों से बंधे झूले, उन पर सजी-धजी बहू-बेटियाँ, और चबूतरे पर गूंजती आल्हा की वीर रस से भरी स्वर लहरियाँ, ग्रामीण संस्कृति की आत्मा मानी जाती थीं। पर अब यह सब बीते समय की बातें बनकर रह गई हैं। आज के दौर में स्मार्टफोन और इंटरनेट की लहर ने नई पीढ़ी को अपनी सांस्कृतिक जड़ों से दूर कर दिया है। झूलों की जगह मोबाइल गेम्स ने ले ली है, और कजरी की मिठास अब यूट्यूब पर फिल्मी गानों में कहीं गुम हो चुकी है। आल्हा और कजरी जैसे लोकगीत, जो कभी समाज की एकता और जीवंतता के प्रतीक थे, अब सिर्फ बुजुर्गों की स्मृतियों में सिमट गए हैं।
“अब न गीत बचे, न संगत” – उदयभान सिंह
देवा क्षेत्र के सलारपुर गांव निवासी 70 वर्षीय उदयभान सिंह बताते हैं, “हमारे समय में सावन का अलग ही उत्साह होता था। लड़कियाँ झूले डालती थीं, शाम को कजरी गूंजती थी, और रात को चबूतरे पर आल्हा होता था। बच्चे, बूढ़े, सब जुड़ते थे। अब न गीत बचे, न संगत।”
बची हैं कुछ परंपराएं, जो दे रही हैं सांस्कृतिक जीवन को संबल

हालांकि कई परंपराएं लुप्त हो चुकी हैं, लेकिन कुछ अब भी जीवित हैं। नाग पंचमी के दिन ‘गुड़िया पीटने’ की परंपरा आज भी कई गांवों में निभाई जाती है। बच्चे मिट्टी या कपड़े की गुड़िया को प्रतीकात्मक रूप से पीटते हैं, जिसे बुराइयों और सर्पदोष से रक्षा की मान्यता प्राप्त है।
संरक्षण की दिशा में प्रयास
लोक परंपराएं केवल मनोरंजन नहीं, सामाजिक एकजुटता और सांस्कृतिक पहचान का आधार हैं। यदि इन्हें समय रहते नहीं बचाया गया, तो आने वाली पीढ़ियाँ इन्हें केवल किताबों और शोध पत्रों में ही जान पाएंगी। कुछ सांस्कृतिक संगठन और विद्यालय इस दिशा में सक्रिय हुए हैं। कजरी प्रतियोगिताएं, लोकगीत शिविर और सावन मेले जैसी गतिविधियों के माध्यम से परंपराओं को पुनर्जीवित करने के प्रयास किए जा रहे हैं।