जल-जंगल-जमीन की लूट का ‘नया माॅडल’ बनी बाराबंकी की वेटलैंड

बाराबंकी, संवाददाता : वेटलैंड संरक्षण की नीति और धरातल पर सच्चाई के बीच की खाई दिनों-दिन चौड़ी होती जा रही है। इसकी ताजा मिसाल है तहसील रामनगर क्षेत्र की सगरा झील, जो कभी जैव विविधता का गढ़ थी और अब अपनी अंतिम साँसें गिन रही है। कभी 100 हेक्टेयर में फैली यह विशाल जल संरचना आज गड्डों, खेतों और नालों में तब्दील हो चुकी है। शासन की लाख घोषणाओं के बावजूद यह वेटलैंड संरक्षण के नाम पर उपेक्षा और उदासीनता की पराकाष्ठा बन चुकी है। जिसके संबंध में पूछने पर जिम्मेदार भी कोई नया बहाना बात कर बात आई गई कर देते हैं।
वेटलैंड दिवस पर भाषण, और अगले ही दिन मशीनें
2 फरवरी 2025 को अंतरराष्ट्रीय वेटलैंड दिवस पर वन विभाग ने इस झील को जैव विविधता का धरोहर बताते हुए यहां प्रदर्शनी और जागरूकता कार्यक्रम आयोजित किया था। लेकिन ठीक इसके कुछ ही सप्ताह बाद जेसीबी मशीनों की गर्जना ने झील की आत्मा को ही छलनी कर दिया। झील की तलहटी को खोदकर छोटे-छोटे पोखरों में तब्दील कर दिया गया — ऐसा विकास जो विनाश के द्वार खोल रहा है।
सरकारी तालमेल की बेमेल तसवीर
एक ओर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ खुद उत्तर प्रदेश के वेटलैंड स्थलों को ईको-पर्यटन हब बनाने का संकल्प दोहरा रहे हैं, तो दूसरी ओर बाराबंकी की सगरा झील वन विभाग, मत्स्य विभाग और राजस्व विभाग की आपसी ‘समझदारी’ का शिकार बन रही है। इस ‘त्रिशंकु नीति’ में न योजना है, न निगरानी — और न ही जवाबदेही।
सूखी झील, पनपते खरबूजे
इस वर्ष झील में एक बूँद पानी नहीं बचा। ड्रेनेज सिस्टम को खुदाई से नष्ट कर दिया गया। पानी के नैसर्गिक स्रोतों को बंद कर, झील के पेटे में सब्ज़ियों की खेती कराई गई। खीरा, ककड़ी, खरबूजा जैसी फसलें उन जगहों पर लहलहा रही हैं, जहाँ कभी कमल और कुमुदिनी झील की शोभा हुआ करते थे। यह न केवल प्राकृतिक विरासत की हत्या है, बल्कि सरकारी नीतियों की खुली अवमानना भी है।
प्रवासी पक्षियों के लिए कब्रगाह बनती सगरा
सगरा झील का प्राकृतिक स्वरूप नष्ट होने से न केवल जल-स्तर गिरा है, बल्कि हजारों ग्रामीणों के जीवन पर भी असर पड़ा है। जलीय जीवन, पक्षियों का प्रवास, मछली पालन, और कृषि के लिए जल आपूर्ति — सब कुछ अस्त-व्यस्त हो गया है। सारस, जांघिल, घोंघिल और जल टिटहरी जैसी प्रजातियाँ अब कहीं और आसरा खोज रही हैं।
जब फोटोग्राफी स्पॉट से बना ‘विकास का पॉट
जिस झील पर वाइल्डलाइफ फोटोग्राफर प्रदेश के कोनों से खिंच चले आते थे, वह अब केवल खेतों की फसल और मशीनों की लकीरों में तब्दील है। झील की जैव समृद्धि और प्राकृतिक आकर्षण अब प्रशासनिक लापरवाही की शिकार हो चुकी है।
अब भी समय है…
जानकारों का मानना है कि झील का सीमांकन तत्काल किया जाए। मछली पालन समेत सभी पट्टे तत्काल निरस्त हों। वैज्ञानिक जलीय कृषि की पहल के साथ किसान जागरूक हों। ईको-पर्यटन स्थल के रूप में इसे घोषित कर स्थानीय युवाओं को रोजगार से जोड़ा जाए। झील को जिला पर्यटन मानचित्र पर लाया जाए। वन्यजीव फोटोग्राफरों, शोधकर्ताओं, विद्यार्थियों के लिए यहां कार्यक्रम आयोजित हों। लोगों का कहना है कि अगर सगरा झील को नहीं बचाया गया, तो आने वाले वर्षों में ‘वेटलैंड’ केवल वादों की भूमि बनकर रह जाएंगे, और हमारी आने वाली पीढ़ियां केवल नक्शों में झील ढूँढती फिरेंगी।